Saturday, November 9, 2013

जर्जर हालत




हिलते दरवाजे की जर्जर हालत
जीवन से मांगे हर पल मौहलत
भीतर तक जो चाट गयी
दीमक हिम्मत काट गयी
हिलती चूरे हिलते कब्जे
एक दूजे का दर्द है समझे
एक दिन का था नही परिवर्तन
जब समय रहते न किया जतन
तब हालातो ने किया पतन
अब पीर दुखदायी रोये मन
टूटी साँसे देती आहट
भंगुर मन की घबराहट
मौत मिले अब कौन बखत
वक्त आखरी जब देता दस्तक
हिलते दरवाजे की जर्जर हालत
जीवन से मांगे हर पल मौहलत
देश के बिगड़ते हालातो के लिए हम सभी जिम्मेदार है क्योकी भागमभाग जिंदगी और पैसा कमाने
की होड़ में देश के प्रति अपने कर्तव्यों से लगभग विमुक्त होते जा रहे तभी देश में अव्यवस्था का माहोंल
पनप रहा है और अपराधिक चरित्र के लोग देश की सत्ता पर काबिज हो रहे, यह भ्रष्टाचार एक दिन की
देंन नही है बल्कि हम सभी की विगत वर्षो की नाकारात्मक प्रवर्तियो का खामियाजा है जो देश को दीमक
की तरह खोखला कर रहा है, सोचिये यदी आज नही तो कभी नही, इस दिशाविहीन राजनीति के परिवर्तन
के लिए अपने विचार और सुझाव दे..... धन्यवाद .....नीरज सक्सेना

गुलामी के प्रतीक

लालकिले की प्राचीर से फिर वही वादे किये
जनता की कौन सुने जब वजीर ही रो दिए
न बदला है न बदलेगा यह इशारे कर दिए
लौट चल ठीया परे आस लगाए किस लिए
प्याज के आसुओ से आख को पीड़ा नही
भूख से मरने का दिमाख में कीड़ा नही
तो जैसे तैसे जीते आये वैसे ही जी लीजिये
स्वतन्त्र देश में.......
 बस स्वतंत्रता की इच्छा ही न कीजिए
जो स्वतन्त्र है वह केवल झंडा फैरायेंगे
हम गुलामी के प्रतीक तालिया बजायेंगे
वह हम्हे नारा और वादों के बीच नचाएंगे
और हम उम्र के पैर, उम्मीदों पर थिरकायेंगे
झूठ की बुनियाद पर देखो मसीहा चल दिये
सियासत के मैदान में यह कैसे बीज बो दिये
न बदला है न बदलेगा यह इशारे कर दिए
लौट चल ठीया परे आस लगाए किस लिए


आम सोच

एक आम सोच, जो अंजान अकेली घबरायी सी
खुशियों के स्वप्न मात्र से कुछ कुछ बौराई सी
है बिल्कुल तेरे मन की न समझो इसे पराई सी
बंद आख तो मात्र निशा की परछाई सी
देखो सच और करो सामना वरना जीत हरजाई सी
सन ४७ बीते वर्ष ६६ क्यों तुमने न अंगड़ाई ली
उठो बड़ो अब तो तज दो रीत वही अलसायी सी
एक आम सोच, जो अंजान अकेली घबरायी सी

रौशनी

दिल भी जलाया की तनिक रौशनी हो जाए
निगाहें मौत से हटायी की जिन्दगी हो जाए
दिल मानता ही नही की अभी हार है
आखरी उम्मीद का अभी भी इंतज़ार है
मेरे लड़खाड़ाते कदमो ने कसम है खाई
जिन्दगी जो अब तक दौड़ न पाई
वक्त-ऐ सफ़र की हर बुनियाद हिला देंगे
हर हार को जीत की लिखावट से मिटा देंगे
कितने मौके चूके क्या हिसाब करू
वल्द इसके नए मौके कामयाब करू
चलो मिलके जीत को आमीन कह दिया जाए
मायूसी माहौल को अलविदा कर लिया जाए

सोने की बरसात

हिन्दुस्तान की जमी से टनों सोने की बरसात का दावा है
 एक संत के स्वप्न पर जोशे-ऐ खोज का उमड़ा लावा है
नही समझते की खिलौने स्वपन के आँखों में खेले तो बेहतर है
वरना सवाल उलझते है और जबाब के हर पहलू बेअसर है
हाथ की तकदीर अगर कल बदलती तो इंसान के कई हाथ होते
बिना नींद के भी मुह ढक कर हम आराम से सोते
बिना मेहनत कब सबेरा किसी के नसीब को
चलो देख लेने दो सपना किसी गरीब को
अभी भीड़ उस और जिस और ख्वाबो की चली हवा है
सबको पता है स्वप्न भला कब किस मर्ज की दवा है
गरीब के सपने जिसमे टनों सोने की बरसात का दावा है
 कुछ पल के लिए ही सही पर उमड़ा खोज का लावा है

दीपोत्सव

रौशनी से नहायी एक बस्ती
आतिशी अंदाज और मस्ती
दीपोत्सव का आगाज करती
 दुलहन सी सजती सवरती
पर दूर कही जिंदगी सस्ती
 दीपावली का इंतज़ार करती
खुशिया जहा धुंध सी मिलती
वह नाकामियों की बस्ती
तस्वीर के दो पहलू
 किसी को ख़ुशी किसीको मायूस मिलती
दुखती रग पूछती
यह हालात ऐ तस्वीर क्युँ नही बदलती
पर्व कि रोशनी क्युँ पता बूझती
क्युँ तंग गली तंगियत से जूझती
क्युँ रौशनी से नहायी एक ही बस्ती
क्युँ नही हर तरफ
आतिशी अंदाज और मस्ती
सभी को शुभ हो दीपावली
मिले हर मुमकिन हर खुशी
पोछ दो हर आँख से आंसू
ढक दो हर होठ पर हसी
रौशनी हर अँधेरे मिटा दे
ईश्वर हर उम्मीद लौटा दे
बस अहले दिल यही मुबारक दुआ है निकलती
रौशनी से नहायी हो हर एक बस्ती
हर तरफ जज्ब हो जाए
आतिशी अंदाज और मस्ती.......................

अंधियारी रात


लो मिटी अंधियारी रात जब सुबह ने दस्तक दी
उम्र की दहलीज ने फिर जिंदगी को मोहलत दी
कब किसे क्या हो जाए अगले पल की खबर नही
मौत लगी उसके गले जिसमे जीतने का जिगर नही
हम हाथ खाली आये थे और खोने की फ़िक्र नही
उड़ गए जो परिंदे अब उनका आसमा में जिक्र नही
एक दिन और मिला क्यों और पाने की फितरत दी
मौहब्बत की गुमनामियाँ ढेर सीने में नफ़रत दी
साथ मिल बैठने की सदियाँ कब के गुजर गयी
काफिला पीछे गया पर खामोशियो का सफ़र नही
दिल दर्द की चीख से इंसानियत भी डर गयी
फासले खुद से बढ़े हर नजदीकिया फिसल गयी
बनावटी मुस्कान ने होठो को एक नयी कूबत दी
गिरगिट से बदलते लोग हम्हे वैसी ही सोहबत दी
यह सुबह क्या कहे असल रात की खुद नौबत दी
मौहब्बत की गुमनामियाँ ढेर सीने में नफ़रत दी


बारूदी फसल

बारूदी फसलो ने उगली सिर्फ नफ़रत की आग है
आँखों में मायूसी पनपी और सारे सपने खाख है
जिन हाथो डोर थमायी उसकी नियत नापाक है
माली मौत के सौदागर और रोता सारा बाग़ है
सफ़ेदपॉश खद्दर के पीछे न जाने कितने दाग है
सत्ता और सियासत में सिर्फ बटवारे के राग है
दो टुकड़ो में भारत बाँट अंग्रेजो ने एक वार किया
भारत की सियासत में नेताओ को हथियार दिया
हिदुस्तान पाकिस्तान अब दो टुकड़ो में घरबार है
सौ सौ टुकड़े करने को अब यह सत्ताधारी तैयार है
 धर्म बड़ा और अस्मत छोटी मिट्टी रौंदी इज्जत है
खुद ऊपर वाल दाँव लगा है दंगे मंदिर मस्जिद है
जिसने आग लगायी दिलो में क्युँ गद्दार वही कबूल है
निर्दोषो के दामन चुभते क्युँ दहशत के शूल है
बदलो यह दस्तूर पुराना हर हारे पल की मांग है
मत बोल अकेले क्या बदलेगा झूठा कोरा स्वांग है
बारूदी फसलो ने उगली सिर्फ नफ़रत की आग है
आँखों में मायूसी पनपी और सारे सपने खाख है











सफ़ेद कुर्ते जहरीली मुस्कान

लो आ गए फिर नकली चहरो के साथ
ठगने को तैयार है वही पुरानी बात
रगीन बैनर सफ़ेद कुर्ते जहरीली मुस्कान
अपने अपने दल की लेकर बात बखान
छा गए लोग हर गली हर बस्ती में
चमचो की जेब गर्म पीछे पीछे मस्ती में
सबको मालुम यह रैला बस चार दिनों का
फिर देखे कौन बनेगा हमदर्द  किसी का
तंगहाली को दूर करेंगे वादे सारे कोरे है
अपने घर को भर लेंगे नेता बड़े छिछोरे है
बीते वक्त न बदल सकी क्या बदले वह जात
सब कुछ हथियाने को बढ़ते इनके पापी हाथ
निरी अमावस जनता की इनकी चांदनी रात
चोर चोर मौसेरे भाई छोड़े न संग साथ
छोड़े न संग साथ भ्रष्ट सब नेता है
मतलब के खातिर बेचे, देश विक्रेता है
लो आ गए फिर नकली चहरो के साथ
ठगने को तैयार है वही पुरानी बात

सच्ची वेदना सवेदना

एक दर्द एक चीख एक पुकार है,
कंटक शूल सी चुभती खार है !
बैचैन खाली गुजरते हर सत्र,
नित मैले मलिन होते चरित्र !
 कष्ट कम्पित उभरती वेदना,
मायूसियों का ह्रदय भू भेदना !
लिख रहा हुँ मैं भाव विधि,
मिट गयी हर अनमोल निधि !
 भूख गरीबी कण कण बसी,
कही खो गयी निश्छल हसी !
हर अंतरात्मा छलनी हुयी,
अपराध आवश्यकता की जननी हुयी !
रिश्तो में उभरी एक दरार है,
सब पराये स्वार्थ का करार है !
 हुयी महंगाई इंसान बिक रहा है,
 लुप्त सच्चाई फरेब टिक रहा है !
 बहशी अस्मत से खेल इतिहास लिख रहा है!
काल के आगोश में संसार दिख रहा है !
जाने कितने दर्द कितनी चीख कितनी पुकार है,
भूमी के सीने पर चुभती कंटक शूल सी खार है !
 अफसोस मैं बस सवेदना लिख रहा हुँ,
ह्रदय की सच्ची वेदना लिख रहा हुँ !