- ...वह् निकल पड़ी रोजी रोटी कोनीलाम करने अपनी बोटी को………………
नीलाम करने अपनी बोटी को
बदन के नग्न उभार झाके उजले उजले
ढक न सके उसके तन को नुचे कुचले
लज्जा शर्म से गड़ी हुयीं थी एक नारी
माँ बनना, थी उसकी सबसे बड़ी बिमारी
सिसकी अपने दुर्बल भूखे बच्चो की
भूल गयी चिन्ता अपने अस्मत की
नग्न झाँकते तन को भूल
गिद्ध नजर के भेदते शूल
वह् निकल पड़ी रोजी रोटी को
नीलाम करने अपनी बोटी को
कहने को बरसो पहले मिली आजादी है
पर जस के तस जरूरत वही बुनियादी है
युग बदले पर यह हालात न बदले
बद से बदतर क्या आज क्या पहले
कर्जे में डूबे गिरते घर के टूटे से छज्जे
भूख प्यास से बोझिल मृत शरीर के मंझे
बेबस मन बस म्रत्यु दामन में लेने को मचले
पर माँ तो माँ है मन में ममता का भाव पले
सो........... वह् निकल पड़ी रोजी रोटी कोवह् निकल पड़ी रोजी रोटी को
नीलाम करने अपनी बोटी को………………
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Wednesday, July 31, 2013
बदन के नग्न उभार झाके उजले उजले
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