धरती के रंगों में घुला रंग नफरत का
और दूर हुआ मन से नशा मुहब्बत का
कभी गलियों में होता था रंग का हुड़दंग
सर पर चड़ बोलती थी तबीयत की भंग
अब साथ में त्यौहार भला कैसे मनाये
जकड़ी हुई देखो धर्मो की झूठी मान्यताये
जाने कहा लुप्त हुयी प्रेम भरी आस्थाये
मन की तसल्ली को कलफी कामनाये
रोकती जो टोकती प्यार की ठिठोली
अब तो बस यादों में बसती है होली
अबीर और गुलाल भरी बच्चो की झोली
जातपात भुलभाल मस्तों की टोली
यौवन में डूबी वह सुरतिया भोली भोली
काश बीते दिन आते और बहती फुआर
फिर से संग साथ की, चलती बयार
आपसी रंजिशो का न होता प्रहार
तो होली तो होली, मनता हर त्यौहार
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