"आज कि आवाज़"
जीवंत सच्चाइया जिन्हें देख कर भी हम अनदेखा कर देते है उन्हीं सच्चाइयो के झरोखे में झाँकने को मजबूर मेरा मन और उस मन कि व्यथा अपने ही जैसों को समर्पित करना ही मेरा उद्देश्य है, और मेरा निवेदन है कि मेरी सोच में जो अधुरापन रह भी गया है उस पर आप लोगो की कीमती टिप्पणी यदि समय समय पर मिलती रहे तो शायद कोई सार्थक तत्व समाज कि जागरूकता में योगदान दे सके!
Wednesday, June 24, 2020
Tuesday, May 21, 2019
गांव
गांव
जाने चढ़ा किस दाँव
वह खुशियों का गांव
लहराती फ़सलें
अपनो के जुमले
खुशियों भरा गांव
नीम की छाओं
रात में अलाव
नदियों की नाव
गोरी का घूँघट
छनछनाता पनघट
कुंडी की खटखट
खेलते नटखट
बालकों का शोर
मदमस्त मोर
सोंधी सी माटी
चोखा और बाटी
हाटो पर रौनक
रतजगे की ढोलक
फूलों की महक
चिड़ियों की चहक
पतली पगडंडियाँ
चौपाल कि बतिया
बैलों की घंटी
वो ताबीज वो कंठी
रशीद का सलाम
गोपी की राम राम
जाने चढ़ा किस दाँव
वह खुशियों का गांव
कहा वह हरियाली
गांव की खुशहाली
वह सादगी का जीवन
बौर खिला उपवन
लुभावना लड़कपन
अल्लड़ सा यौवन
चूल्हे की रोटी
जरूरतें थी छोटी
जीना था सस्ता
सबसे था रिश्ता
नहीं था दिखावा
सादा था पहनावा
पर विकास की दौड़ में
तरक्की कि होड़ में
बदला हवा का बहाव
टूटा गांव का लगाव
चढ़ गया दाँव
वह खुशियों का गांव
मैं देवी स्वरूप हूँ
पढ़ा था बचपन मे देवी का स्वरूप हूँ
मैं ही समस्त धरा में ममत्व का रुप हूँ
जननी हूँ मैं जीवन का अटल स्रोत हूँ
प्रीतम पे वारी मैं प्रेम से ओत प्रोत हूँ
मैं ही समस्त धरा में ममत्व का रुप हूँ
जननी हूँ मैं जीवन का अटल स्रोत हूँ
प्रीतम पे वारी मैं प्रेम से ओत प्रोत हूँ
जानें कितनी गाथाएँ अनगिनत रचनाएं
मंदिर मंदिर हैं मेरी ही पावन प्रतिमाएं
किंतु सत्य विपरित मैं रही अभागी
बन राम की संगनी, गयी मैं त्यागी
दुःखो के भवसागर में, मैं डूबी अथाह
बन सती जनमन हेतु स्वीकारती चिता
नारी पूज्य जीवन जननी लगे मिथ्या
देव श्राप से पाषाण बनती मैं अहिल्या
लखन चले राम संग कुछ न कहती
मै सहर्ष विरह की अग्नि को सहती
वर्तमान में भी अस्तित्व की पुकार हूँ
सृजन में क्रीड़ामयी साज श्रंगार हूँ
प्रेयसी, भगनी, संगनी, माँ बनती
धूप की भांति मैं संबंधों में उतरती
अनायास जीवन मे आता प्रलाप है
भेदता शब्द, अभिशाप सा तलाक है
सुनना, सुन कर सबके मन का बुनना
मेरी नियति जन्म जन्म जीवन जनना
चारदीवारी में मौन सावित्री सी मैं अनूप हूँ
सौंदर्य संग पलती अनेक पीढ़ा कुरूप हूँ
हाँ मैं ही हूँ प्रेम, समर्पित ममता का रूप हूँ
पर मिथ्या सा लगता मैं देवी स्वरूप हूँ
पर मिथ्या सा लगता मैं देवी स्वरूप हूँ
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